श्री शिवरामाष्टक स्तोत्रम् | Shiv Ramashtakam

नमस्कार पाठकों, इस लेख के माध्यम से आप श्री शिवरामाष्टक स्तोत्रम् / Shiv Ramashtakam in Hindi PDF प्राप्त कर सकते हैं । श्री शिवरामाष्टक स्तोत्रम् एक अत्यंत ही मधुर एवं प्रभावशाली स्तोत्र है । इस स्तोत्र का पाठ करने से न केवल मर्यादा पुरोषोत्तम भगवान श्री राम जी की कृपा प्राप्त होती है बल्कि भगवान श्री शिव शंभू भोलेनाथ जी की भी कृपा की प्राप्ति होती है ।
भगवान राम जी की कृपा से व्यक्ति के जीवन में आने वाले समस्त प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं तथा व्यक्ति अंत में प्रभु के धाम को जाता है तथा भोलेनाथ जी की भक्ति से व्यक्ति के शत्रुओं का नाश होता है तथा भोलेनाथ अपने भक्त एवं उसके परिवार की सदैव रक्षा करते हैं । यदि आप भी अपने जीवन में सकरात्म्क्ता का समावेश करना चाहते हैं तो इस स्तोत्र का पाठ अवश्य करें। शिव चालीसा के गायन से भी भक्तों को लाभ मिलता है।

श्री शिवरामाष्टक स्तोत्रम् | Shiv Ramashtakam Lyrics in Sanskrit PDF

शिवहरे शिवराम सखे प्रभो,

त्रिविधताप-निवारण हे विभो।

अज जनेश्वर यादव पाहि मां,

शिव हरे विजयं कुरू मे वरम् ॥१॥

कमल लोचन राम दयानिधे,

हर गुरो गजरक्षक गोपते।

शिवतनो भव शङ्कर पाहिमां,

शिव हरे विजयं कुरू मे वरम् ॥२॥

स्वजनरञ्जन मङ्गलमन्दिर,

भजति तं पुरुषं परं पदम्।

भवति तस्य सुखं परमाद्भुतं,

शिवहरे विजयं कुरू मे वरम् ॥३॥

जय युधिष्ठिर-वल्लभ भूपते,

जय जयार्जित-पुण्यपयोनिधे।

जय कृपामय कृष्ण नमोऽस्तुते,

शिव हरे विजयं कुरू मे वरम् ॥४॥

भवविमोचन माधव मापते,

सुकवि-मानस हंस शिवारते।

जनक जारत माधव रक्षमां,

शिव हरे विजयं कुरू मे वरम् ॥५॥

अवनि-मण्डल-मङ्गल मापते,

जलद सुन्दर राम रमापते।

निगम-कीर्ति-गुणार्णव गोपते,

शिव हरे विजयं कुरू मे वरम् ॥६॥

पतित-पावन-नाममयी लता,

तव यशो विमलं परिगीयते।

तदपि माधव मां किमुपेक्षसे,

शिव हरे विजयं कुरू मे वरम् ॥७॥

अमर तापर देव रमापते,

विनयतस्तव नाम धनोपमम्।

मयि कथं करुणार्णव जायते,

शिव हरे विजयं कुरू मे वरम् ॥८॥

हनुमतः प्रिय चाप कर प्रभो,

सुरसरिद्-धृतशेखर हे गुरो।

मम विभो किमु विस्मरणं कृतं,

शिव हरे विजयं कुरू मे वरम् ॥९॥

नर हरेति परम् जन सुन्दरं,

पठति यः शिवरामकृतस्तवम्।

विशति राम-रमा चरणाम्बुजे,

शिव हरे विजयं कुरू मे वरम् ॥१०॥

प्रातरूथाय यो भक्त्या पठदेकाग्रमानसः।

विजयो जायते तस्य विष्णु सान्निध्यमाप्नुयात् ॥११॥

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