नमस्कार पाठकों, इस लेख के माध्यम से देवोत्थान एकादशी पूजा विधि / Devutthana Ekadashi Puja Vidhi PDF प्राप्त कर सकते हैं। समस्त एकादशी तिथियों में देवोत्थान एकादशी का बहुत अधिक महत्व है। माना जाता है कि इस दिन किये गए दान – पुण्य से व्यक्ति को अनेक यज्ञों का पुण्यफल प्राप्त होता है।
माना जाता है कि देवोत्थान एकादशी के दिन समस्त देव जागते हैं तथा इस दिन से हिन्दुओं में मांगलिक कार्यक्रम आरम्भ हो जाते हैं। ईसिस दिन से वैवाहिक कार्यक्रमों का भी आरम्भ हिन्दू समाज में हो जाता है। ब्रज तथा आसपास के क्षेत्र में देवोत्थान एकादशी का एक विशेष ही महत्व है तथा इस दिन पंचकोसीय परिक्रमा का भी प्रचलन है।
देवोत्थान एकादशी पूजन विधि | Devutthana Ekadashi Vrat Vidhi PDF
- इस दिन सुबह-सुबह उठकर स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें और भगवान विष्णु का ध्यान कर व्रत का संकल्प लें.
- घर के आंगन में भगवान विष्णु के चरणों की आकृति बनाएं. लेकिन धूप में चरणों को ढक दें.
- इसके बाद एक ओखली में गेरू से चित्र बनाकर फल, मिठाई, ऋतुफल और गन्ना रखकर डलिया से ढक दें.
- इस दिन रात्रि घरों के बाहर और पूजा स्थल पर दीये जलामें ए जाते हैं.
- रात में पूरे परिवार के साथ भगवान विष्णु और अन्य देवी-देवताओं की पूजा करें.
- शाम की पूजा में सुभाषित स्त्रोत पाठ, भगवत कथा और पुराणादि का श्रवण व भजन आदि गाया जाता है
- इसके बाद भगवान को शंख, घंटा-घड़ियाल आदि बजाकर उठाना चाहिए.
देवोत्थान एकादशी व्रत कथा | Devutthana Ekadashi Vrat Katha
एक राजा के राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत रखते थे। प्रजा तथा नौकर-चाकरों से लेकर पशुओं तक को एकादशी के दिन अन्न नहीं दिया जाता था। एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आकर बोला: महाराज! कृपा करके मुझे नौकरी पर रख लें। तब राजा ने उसके सामने एक शर्त रखी कि ठीक है, रख लेते हैं। किन्तु रोज तो तुम्हें खाने को सब कुछ मिलेगा, पर एकादशी को अन्न नहीं मिलेगा।
उस व्यक्ति ने उस समय हाँ कर ली, पर एकादशी के दिन जब उसे फलाहार का सामान दिया गया तो वह राजा के सामने जाकर गिड़गिड़ाने लगा: महाराज! इससे मेरा पेट नहीं भरेगा। मैं भूखा ही मर जाऊंगा, मुझे अन्न दे दो।
राजा ने उसे शर्त की बात याद दिलाई, पर वह अन्न छोड़ने को तैयार नहीं हुआ, तब राजा ने उसे आटा-दाल-चावल आदि दिए। वह नित्य की तरह नदी पर पहुंचा और स्नान कर भोजन पकाने लगा। जब भोजन बन गया तो वह भगवान को बुलाने लगा: आओ भगवान! भोजन तैयार है। उसके बुलाने पर पीताम्बर धारण किए भगवान चतुर्भुज रूप में आ पहुंचे तथा प्रेम से उसके साथ भोजन करने लगे। भोजनादि करके भगवान अंतर्धान हो गए तथा वह अपने काम पर चला गया।
पंद्रह दिन बाद अगली एकादशी को वह राजा से कहने लगा कि महाराज, मुझे दुगुना सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया। राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे साथ भगवान भी खाते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता।
यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला: मैं नहीं मान सकता कि भगवान तुम्हारे साथ खाते हैं। मैं तो इतना व्रत रखता हूं, पूजा करता हूं, पर भगवान ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए।
राजा की बात सुनकर वह बोला: महाराज! यदि विश्वास न हो तो साथ चलकर देख लें। राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस व्यक्ति ने भोजन बनाया तथा भगवान को शाम तक पुकारता रहा, परंतु भगवान न आए। अंत में उसने कहा: हे भगवान! यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूंगा।
लेकिन भगवान नहीं आए, तब वह प्राण त्यागने के उद्देश्य से नदी की तरफ बढ़ा। प्राण त्यागने का उसका दृढ़ इरादा जान शीघ्र ही भगवान ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और साथ बैठकर भोजन करने लगे। खा-पीकर वे उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए। यह देख राजा ने सोचा कि व्रत-उपवास से तब तक कोई फायदा नहीं होता, जब तक मन शुद्ध न हो। इससे राजा को ज्ञान मिला। वह भी मन से व्रत-उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ।
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